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प्राचीन भारतीय संस्कृति, कर्तव्य / धर्म (सनातनी परंपरा अनुसार), व मूल्यों की रक्षा करना, उनका प्रचार करना, एवं समाज में उन्हें पुनः स्थापित करना । राष्ट्र व इसके सांस्कृतिक मूल्य सर्वोपरि हैं, व्यक्ति व परिवार गौण है ।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्,
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ।

अर्थात हे मनुष्यों ! तुम लोग मिलकर चलो । प्रेमपूर्वक आपस में वार्ता करो / बोलो । तुम्हारे मन मिलकर सत्यासत्य-निर्णय के लिए सदा विचार करें । जैसे प्राचीनकाल के विद्वान् लोग परस्पर विचार करके, सत्यासत्य का निर्णय करके अपने-अपने भाग की उपासना/योगदान/भोग करते आये हैं ।

भारतवर्ष को अंतिम बार एक सूत्र में पिरोने वाले आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) की शुभ्र चेतना से प्रकाशित

राष्ट्रीय जीवन में व्यक्ति माँ के गर्भ के साथ-साथ एक संस्कृति के गर्भ से भी जन्म लेता है और जिस संस्कृति के गर्भ से मैंने जन्म लिया, उसका नाम है भारतीय संस्कृति, व जिस धरा पर मैंने जन्म लिया है उसका नाम है भारतवर्ष । संस्कृति कोई भाषा नही है, कोई जाति/धर्म नही है । हम उस संस्कृति के वंशज हैं जो मानव को मानव से जोड़ती है, जिसमें सृष्टि के समग्र रूप को, चाहे वह ग्रह हों, पृथ्वी पर विचरण करने वाले जीव हों, अथवा पेड़ पौधे, या पत्थर हों, सभी को पूज्यनीय माना गया और प्रकृति से एकात्म हो जीवन जीने की शिक्षा दी गई ।

पिछले लगभग 1300 वर्षों से हमारी धर्म-परायणता की सरलता, व मानवीय अवगुणों के कारण हम बर्बर जातियों व आक्रांताओं से पराजित व प्रताड़ित होते रहे हैं । पराजित मन, पराजित राज्य व पराजित राष्ट्र प्रायः विजेता की संस्कृति को स्वीकार करते हैं । आक्रांताओं ने इस धरती पर स्थिर होने व भारतीयों पर सदा के लिए अपना वर्चस्व बनाए रखने हेतु भारतीय संस्कृति की जड़ों पर आक्रमण किया और हमारी असावधानीवश सांस्कृतिक दासता धीरे धीरे समाज में कर्क रोग की भाँति पैठ चुकी है । हमारे पतन का कारण हमारा अपनी सांस्कृतिक विरासत को छोड़ना है । इसलिए यदि शीघ्र ही इस राष्ट्र की सुप्त चेतना को जागृत कर इसे संगठित नही किया गया, तो इस राष्ट्र को विधर्मी दासता से मुक्त करना और अपनी संस्कृति को भावी पीढ़ियों हेतु सुरक्षित करना असंभव होगा । स्मरण रहे, आक्रांताओं से युद्ध में पराजित राष्ट्र तब तक पराजित नही होता जब तक वह अपनी संस्कृति व मूल्यों की रक्षा कर पाता है । पर क्या धर्म व जाति के नाम पर खंड खंड में बँटा यह राष्ट्र अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएगा ? क्या महान मनीषियों, ज्ञानियों, व पराक्रमी पूर्वजों के वंशज उनकी इस सांस्कृतिक धरोहर को भावी पीढ़ियों हेतु सुरक्षित रख पाएँगे ? दुर्भाग्यवश, वर्तमान की संकुचित राजनीति मानव को मानव से तोड़ने का कार्य कर रही है । अतः राजनीति के इस दायित्व का निर्वाह अब संस्कृति को ही करना होगा । संस्कृति को ही सेतु बनाना होगा ।

विद्या ही मार्ग दिखाती है, और यदि वह संस्कृति की रक्षा करने में असमर्थ है तो वह अपूर्ण है, व्यर्थ है, एवं समय-वाह्य हो गई है । स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत हमारी शिक्षा नीति व विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भारतीय शास्त्र ज्ञान का लगभग पूर्ण अभाव रहा है जिस कारण वर्तमान पीढ़ियाँ भारतीयों द्वारा रचित भारतीय संस्कृति के शास्त्रों एवं भारतीय ज्ञान-विज्ञान के इतिहास से अपरिचित रह गई हैं । वर्तमान की शिक्षा मात्र धनोपार्जन एवं भोग सामग्री एकत्र करने का साधन रह गई है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इसमें आवश्यक आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे । इसी दिशा में वज्रकुल संस्था की शाखा वज्रसंस्कृति का यह विनम्र प्रयास है कि भारतीय संस्कृति के परिचायक अधिकांश शास्त्र (जिसमें हिंदु, जैन, बौद्ध, व सिख धर्म के प्रमुख ग्रंथ जैसे वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, रामायण, महाभारत, आगम, त्रिपिटक, व आदिग्रंथ, इत्यादि) एक ही पटल पर सुगमता से उपलब्ध हों ।

यदि आप भी इस यज्ञ में योगदान देना चाहते हो तो इसकी अग्नि में राष्ट्र के उत्कर्ष में बाधक स्वयं की अज्ञानता, स्वार्थ, व अन्य सभी मनोदोषों को समर्पित कर संकल्प लो कि भारतीय संस्कृति के परिचायक अधिकांश शास्त्रों के ज्ञान को स्वयं के साथ साथ प्रत्येक हृदय में, प्रत्येक गाँव, प्रत्येक नगर, व प्रत्येक प्रांत में पहुँचाने में वज्रकुल के प्रयासों में सत्यनिष्ठा से योगदान देकर अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करोगे ।

गर्व से कहो कि हिमालय से समुद्र पर्यंत भूमि का कण कण मेरा है, और उसे अपनी गौरवशाली मातृभूमि कहने का मुझे अधिकार है और मुझसे मेरा वह अधिकार कोई नहीं छीन सकता 🚩

डॉ सत्येंद्र तोमर

संस्थापक

अस्वीकरण

इस पटल पर उपलब्ध सभी ग्रंथ व शास्त्र भारतीय ऋषियों, मनीषियों व ज्ञानियों की कृति होने के कारण पूरे भारतीय समाज की धरोहर है । यह संपूर्ण संकलन भिन्न भिन्न ऑनलाइन स्थानों से प्राप्त किया गया है जिनका संदर्भ संबंधित ग्रंथ/शास्त्र के पृष्ठ पर दिया गया है । वज्रकुल या वज्रसंस्कृति का उन पर किसी भी प्रकार का स्वामित्व नही है और ना ही वज्रकुल या वज्रसंस्कृति किसी सामग्री की पूर्ण शुद्धता या सटीकता का उत्तरदायित्व लेते हैं । जो भी स्वयं को उन महान पूर्वजों के वंशज व भारतीय संस्कृति की संतान मानते हैं या उस महान ज्ञान की धरोहर के अध्ययन में रूचि रखते हैं, एक ही पटल पर उपलब्ध यह सारा संकलन उनके हितार्थ वज्रकुल संस्था की ओर से तुच्छ भेंट है 🙏